સુબીરજી ની શિક્ષણની વાર્તા


कछुआ, खरगोश और अन्धविश्वास

ये तो आप जानते ही हैं कि कई तरह के अन्धविश्वास होते हैं - कोई समझता है कि बिल्ली के रास्ता काटने से कुछ हो जाता है, कोई छींकों को ले कर कुछ मान बैठता है, तो कोई और समझता है की चूंकि किसी काल्पनिक कथा में कछुआ खरगोश से दौड़ में जीत गया था, इसलिए हमेशा ही धीरे-धीरे चलने वाले की जीत होती है. 

थोड़ा चौंके, है न. अब चौंक ही चुके हैं तो थोड़ा सोच भी लीजिये. कहानी में तो धीरे-धीरे चलने वाला तब ही जीता जब तेज दौड़ने वाला सो गया - लेकिन हमारे द्वारा निकाली गयी 'शिक्षा' में यह नहीं कहा जाता है की धीमे चलने वाला तभी जीतता है जब तेज चलने वाला सो जाए! और यह 'शिक्षा' इतनी पक्की होती है की हम अपने आस-पास भी यह देखने से इंकार कर देते हैं कि हमारे धीरे चलने के बावजूद (या शायद इसी वजह से) दूसरे हमसे कितने आगे जा रहे हैं.

इस तरह वास्तविकता और तर्क से परे हो कर (और कहानी के पूरे संभव अर्थ को नज़रंदाज़ कर के) अगर किसी बात तो माना जाए तो वह अन्धविश्वास नहीं कहलायेगा तो और क्या? 

समस्या यह है की ये किसी एक कहानी की बात नहीं है. इस तरह से बिना किसी सोच या तर्क के निष्कर्षों तक पहुँच जाना हमारे पूरे जीवन को प्रभावित करता है. न जाने कितनी सारी धारणाएँ हमारे बीच इसी तरह के निराधार कारणों की वजह से हैं. जैसे कि मान लेना कि जो गोरा होता है, वह ज्यादा अच्छा होता है (और इसीलिए अरबों की फयेरनेस क्रीमों की बिक्री होती है). या ये समझ लेना कि जिनका रहन-सहन या धर्म या जात या भाषा हमसे अलग होती है, उनमें ज़रूर कोई-न-कोई 'खोट' है. कहीं ऐसा तो नहीं कि इतिहास और वर्तमान की कुछ बहुत बड़ी समस्याओं की जड़ें इसी तरह के अंधविश्वासों में हैं?

इस सब में हमारा बहाना होता है कि 'अब हमको यही सिखाया गया तो हम क्या करें'. लेकिन अब अगर आप की उम्र दस साल से ऊपर की है, तो ये बहाना नहीं चलेगा! आप पर लगाये जा रहे लांछन (कि आप अन्धविश्वासी हैं) से बहस करने से बेहतर होगा कि आप इसी तर्कशक्ति का प्रयोग कर के अपने अन्दर झांकें, अपनी धारणाओं को परखें. 

आप कहेंगे कि यहाँ पर आस्था और विश्वास और अन्धविश्वास में अंतर ठीक से नहीं समझा जा रहा है. मैं भी यही कह रहा हूँ - पहचाना तो जाये कि हमारी कौन सी धारणाएं सच में विश्वास की श्रेणी मैं हैं और कौन सी अन्धविश्वास में. शायद यह पहचान पाना ही शिक्षा का बहुत अहम् लक्ष्य है? और हाँ, यह पहचानने का काम 'धीरे-धीरे' नहीं करियेगा - असल जीवन में तेज चलने वाले सोते नहीं हैं और आप अपने आप को बहुत ही 'पिछड़ा' पा सकते हैं. 

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